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कांग्रेस पार्टी के वर्चस्व की लड़ाई में मीडिया का दोहरा नजरिया

NEW DELHI: कांग्रेस पार्टी और बीजेपी जिस तरह से अपनी-अपनी पार्टियों में बदलाव कर रही हैं और अपनी पार्टियों को मजबूत करने के लिए जिस तेजी से मुख्यमंत्री पद में फेरबदल कर रहे हैं ऐसा लगता है जैसे एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ मची है परंतु इन सब चीजों के फेरबदल में जो एक चीज सबसे महत्वपूर्ण है वह भारतीय राजनीति का चौथा स्तंभ माने जाने वाला मीडिया जो अपने दोहरे मापदंड के कारण फिर अपनी फजीहत करवा रहा है।
कई सारे कांग्रेसी मीडिया से बेहद नाराज़ हैं कि गुजरात में जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने मिलकर किया उसे मीडिया ने मास्टर स्ट्रोक कहा और जो कांग्रेस ने पंजाब में किया उसे वो सेल्फ गोल कह रहे है यानी सोशल मीडिया में इस बात को लेकर बवाल है कि कांग्रेस ने भी वही किया जो मोदी ने गुजरात में किया पर गाली फ्री की पड़ रही है.।
चुनाव को मद्दे नज़र रख, मुख्यमंत्री को दोनों ने बदला लेकिन कांग्रेस को अलग नज़रिए से देखा जा रहा है. यानी कांग्रेस को लगता है कि ये कदम एकदम सही दिशा में है और चाहे वो ये फैसला लेते या नहीं लेते, मीडिया गाली उन्हें ही देता.
पर यहां बात गुजरात से अलग हैं. बीजेपी को गुजरात में दिक्कत है| मोदी के दिल्ली आ जाने के बाद वहां मामला शरू से ही ढीला है लेकिन दोनों मामलों में ज़मीन आसमान का अंतर है. मैंने अपने पिछले लेख में लिखा था कि बीजेपी राज्यों में बौने मुख्यमंत्री पैदा कर रही है लेकिन उसका सन्देश जनता में अलग पहुँच रहा है. यानी जनता को लगता है कि मोदी देश चलाना जानते हैं और इंदिरा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू की तरह कड़े फैसले ले सकते हैं और वहीं मुख्यमंत्री चू चपड़ नहीं करते है. वैसे इस तरह के फैसलों की सीमाएं होती हैं लेकिन अभी तक मोदी ने ऐसी कोई गलती नहीं कि जिससे राज्य में विद्रोह हो जाए.
यानी कांग्रेस की वीरेंद्र पाटिल वाली गलती अभी तक नहीं हुई है जिनके हटने के बाद लिंगायत समुदाय ने आज तक कांग्रेस जो कर्नाटक में वोट नहीं दिया. बरहाल. पंजाब कांग्रेस में जो हुआ वो विधान सभा चुनाव तक सीमित नहीं है. ये पार्टी के कब्ज़े की लड़ाई है. राहुल गाँधी के लोगों को लगता है कि पार्टी के नेता राहुल को फ्री हैंड नहीं देते हैं और इसी के चलती नयी कांग्रेस बन नहीं पायी जो नरेंद्र मोदी और भागवत ने बीजेपी में कर दिया. राहुल के करीबी मानते हैं कि इन लोगों का पार्टी से हटना ठीक है और राहुल को अपने हिसाब से पार्टी चलाने का मौक़ा मिलना चाहिए, लेकिन ये मिथ्या है क्योंकि पिछले 10 साल से कांग्रेस के हर बड़े फैसले उनके हिसाब से हो रहे हैं. लेकिन यहाँ बात पंजाब की
इसके कई पहलू हैं लेकिन में अपनी आप को पांच पॉइंट तक सीमित रखूंगा. पहली बात ये कि गुजरात में हंगामा ज़रूर हुआ. 24 घंटे का तमाशा ज़रूर हुआ, लेकिन गुजरात बीजेपी का हंगामा नेटफ्लिक्स का सीरियल नहीं बन पाया. बदलाव के बाद सबके मुंह बंद हो गए. किसी ने पार्टी नेतृत्व को धमकी नहीं दी और ये फैसला पार्टी के हाई कमांड के आदेश पर हुआ. दिल्ली से बैठ कर पंजाब के मुख्यमंत्री के खिलाफ विद्रोह आयोजित किया गया. दिल्ली ने उससे बाकायदा हवा दी. प्रियंका गांधी वाड्रा ने बाकायदा सिद्धू का साथ दिया, यानी कांग्रेस हाई कमांड ने गोली विधायकों के कंधे पर रखा कर चलायी क्योंकि गांधी परिवार को लगता था कि अमरिंदर स्वतः इस्तीफा नहीं दे रहे हैं. ये भी ठीक है. लेकिन अमरिंदर ने जो किया वो किसी बीजेपी के मुख्यमंत्री ने नहीं किया. अमरिंदर ने सिद्धू को देश विरोधी बताया. उन्होंने कहा कि उनके रास्ते खुले हैं और पूरे मामले पर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कांग्रेस के अंदुरनी मामले को सड़क पर रख दिया. सिद्धू को पकिस्तान का दोस्त बता दिया.
चुनाव के 6 महीने पहले ऐसा लगता है कि कांग्रेस आत्महत्या करनी चाहती है. सोनिया केवल नाम की अध्यक्ष हैं और कांग्रेस को राहुल और प्रियंका अपनी घर की पार्टी की तरह चला रहे है. दूसरी बात ये कि जब बीजेपी में सफाई हुई तो मोदी दिल्ली के इनसाइडर नहीं थे. वो पोलिटिकल आउटसाइडर थे. इसलिए कोई उनसे नहीं कह सकता था कि आप मुझको क्यों हटा रहे हैं. सब मोदी के नाम पर चुनाव जीते थे. पंजाब में चुनाव कप्तान और कांग्रेस ने जीता था इसका श्रेय राहुल गांधी को कभी नहीं गया, यानी कांग्रेस ने एक ऐसे व्यक्ति को हटाया है जो शायद दुबारा चुनाव तो नहीं जीत पाता लेकिन अब कांग्रेस के खिलाफ कैंपेन कर सकता है. राहुल पोलिटिकल आउटसाइडर नहीं हैं और इसलिए जब वो सफाई की बात करते हैं तो कोई उनकी बात नहीं मानता है.
तीसरी चीज़ राजनैतिक व्यहवारिकता की है. पंजाब के प्रभारी हरीश रावत ने खुल कहा था कि पंजाब में चुनाव कप्तान के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. ऐसा 50 दिन में क्या हुआ कि स्थिति यहां तक आ गई. कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि अमरिंदर से पार्टी को अपना काम करवाना चाहिए था नाकी उनकी बेइज़ती. अगर अमरिंदर को हटाना था तो तब हरीश रावत को ऐसी बात कहनी नहीं चाहिए थी. यानी या तो तब हरीश रावत झूट बोल रहे थे और राहुल गांधी और प्रियंका का असली मन पंजाब का मुख्यमंत्री ही बदलना था और या अब झूट भूल रहे हैं.
चौथी चीज़ यह कि कांग्रेस अब छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी बदलाव कर सकती हैं. पिछली बार छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल बाल बाल बचे. उन्होंने विधायकों का प्रदर्शन करवाकर अपनी ताक़त साबित कर दी, लेकिन राजनीति में चीज़ें बदल सकती हैं. सचिन पायलट भी अपने वक़्त का इंतज़ार कर रहे हैं. टी इस सिंह देव को भी लगता है कि आखिर के दो साल छत्तीसगढ़ में उनके ही हैं.
और आखिर में ये कि इस पूरी प्रक्रिया से गांधी परिवार का रुतबा बढ़ता नहीं है. इससे ये समझ में आता है कि पार्टी उनकी सुनती नहीं है. क्योंकि कांग्रेस वंशवाद से ग्रसित है इसलिए यहां लड़ाई बीजेपी से नहीं केवल उन लोगों से हो रही है जो गांधी परिवार की बात नहीं सुन रहे हैं. ये वर्चस्व की लड़ाई है. शायद राहुल गांधी को लगता है कि इंदिरा गांधी की तरह कांग्रेस में 1960 के विभाजन के बाद लेफ्ट की मदद से वो अपनी राजनैतिक स्थिति बदल सकते हैं. हो भी सकता है. लेकिन जिस तरह से कांग्रेस में मुख्यमंत्री बदले जा रहे हैं ऐसा लगता है की ये बीजेपी से लड़ाई की तैयारी कम और परिवार की कांग्रेस संगठन में वर्चस्व की लड़ाई ज़्यादा है.
अब केवल एक ही चीज़ राहुल गांधी की किस्मत बदल सकती है. वो ये कि वो बिना अमरिंदर के पंजाब में विधान सभा चुनाव जीते. अगर ऐसा उन्होंने कर दिया तो इसे कहेंगे की चित भी मेरी पट भी मेरी और सिक्का मेरे बाप का और अगर हार गए तो अलविदा राहुल गांधी जी.

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