अखिलेश और रावण के मिलाप के बाद क्या दलित वोट बैंक सपा के खाते में ।
लखनऊ. उप्र विधानसभा चुनावों के सिलसिले में अखिलेश यादव से हाल में हुई चंद्रशेखर रावण की मुलाकात की खबरों ने यूपी की राजनीति में कुछ समय के लिए फिर से चंद्रशेखर रावण के नाम को तैरा दिया.
हालांकि अखिलेश यादव ने इस बात से इंकार कर दिया कि अभी रावण से उनकी मुलाकात नहीं हुई, पर इस बहाने चंद्रशेखर रावण को वह जरूरी पब्लिसिटी मिल गई जिसकी उन्हें आवश्यकता थी. थोड़ी ही देर में चंद्रशेखर रावण की आजाद समाज पार्टी से समाजवादी पार्टी (Samajwadi party) के मुखिया अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के गठबंधन की खबरें भी चलने लगी तो लगे हाथ चंद्रशेखर रावण ने मीडिया में खुद को दलित वोट की आशा बताने वाले और अपनी पार्टी के प्रदर्शन को लेकर अतिउत्साही बयान भी दे डाले. खुद को कांशीराम और मायावती का विकल्प समझने का गुमान पाले बैठे चंद्रशेखर रावण पहले भी ऐसे भी बयान देते रहे हैं जो उनकी राजनैतिक हैसियत से कहीं ज्यादा बड़े होते हैं.
उनके कुछ समय पहले के और हाल ही में दिए गए बयानों पर गौर करें.
एक बयान – ‘यूपी में जो भी सरकार बनेगी, हमारी वजह से ही बनेगी’ .
दूसरा बयान- ‘हमसे गठबंधन करना है तो हमें 6-7 सीटें नहीं, अच्छी-खासी सीटें देनी होंगी, तभी हम गठबंधन के लिए राजी होंगे.’
तीसरा बयान- ‘पार्टियों को हमारे साथ आना है तो बड़ा दिल दिखाना होगा.’
उनके मुंह से कही ये बातें उनके अतिआत्मविश्वास की बजाय अहंकार का प्रदर्शन कही जाएं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. क्योंकि दलित वर्ग पर सिर्फ अपना अधिकार दिखाकर चंद्रशेखर रावण बताना चाहते हैं कि यह वोट बैंक तो उनकी मुट्ठी में है, पर हकीकत में ऐसा नहीं है.आइए अब उनकी राजनैतिक मौजूदगी पर नजर डालते हैं.
दलित वोट बैंक हमेशा से निर्णायक
उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित वोट बैंक को हमेशा से ही निर्णायक भूमिका वाला माना जाता रहा है. कई पार्टियों और नेताओं ने दलित वोट बैंक पर अपना एक मुश्त अधिकार होने के दावे किए, पर हर बार चुनावी नतीजे यह साबित करते रहे कि यह महत्वपूर्ण वोट बैंक किसी एक दल की जागीर नहीं है. पंद्रह-बीस साल पहले यह आलम जरूर था कि कांशीराम और मायावती की लीडरशिप के चलते दलित वोट बैंक बसपा की ओर अच्छा खासा झुकाव रखता था, लेकिन पिछले दशक में हुए बड़े चुनावों में बसपा का और मायावती का जादू गायब सा हो गया है और दलित वोट बैंक इस पार्टी से छिटका हुआ है. बसपा की ऐसी हालत देखते हुए हर बड़े दल की नजर दलितों के इस महत्वपूर्ण वोट बैंक को अपने पाले में लाने पर है.
चंद्रशेखर रावण ने भी इसी राह पर चलते हुए खुद को कांशीराम और मायावती का विकल्प समझने का भ्रम पाला. उनका गणित था कि मायावती और वह खुद दोनों ही जाटव समुदाय से आते हैं और दोनों का ही इलाका वेस्ट यूपी है जहां दलित वोट बैंक की बहुतायत है. ऐसे में रावण मायावती की लीडरशिप को रिप्लेस कर सकते हैं. शुरू में इस लक्ष्य में उन्हें थोड़ी बहुत सफलता मिली भी. एक समय में वह दलित नेता के तौर पर थोड़ा बहुत उभरे, पर यथार्थ के धरातल पर उनका यह सपना अधिकांश समय धूमिल ही रहा है.
उत्तर प्रदेश में दलित आबादी लगभग 22% के आसपास है और प्रदेश की कुल 403 विधानसभा सीटों में से 86 सीटें दलित वर्ग के लिए रिजर्व हैं. चंद्रशेखर रावण इस स्थिति को अपने लिए अवसर मानते रहे हैं, पर इसमें उनके लिए खुश होने जैसी कोई बात नहीं है. 2014 के चुनाव से ही यह ट्रेंड चला आ रहा है कि दलित और अनुसूचित जाति वर्ग का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी को वोट कर रहा है. मायावती की पार्टी बीएसपी के कमजोर होने की यही सबसे बड़ी वजह है.
2017 विधानसभा चुनावों में भाजपा ने दलितों के लिए आरक्षित 86 में से 76 सीटें जीती थीं. 2014 लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दलितों के लिए आरक्षित 17 में से 17 सीटें जीती थीं और वहीं 2019 लोकसभा चुनावों में भाजपा गठबंधन ने दलितों के लिए आरक्षित 17 में से 15 सीटें जीती थीं. वर्तमान में योगी आदित्यनाथ के रूप में बीजेपी के पास राज्य में एक ऐसा नेता है जो दलित वोट बैंक में पिछले चुनावों में ही बड़ी सेंध लगा चुका है तो ऐसे में कहां चंद्रशेखर रावण जैसे नेता दलितों के वोट बैंक पर कब्जे की बात कह सकते हैं.
योगी-मोदी के माहौल में कौन टिकेगा ?
बीजेपी के प्रति दलित वर्ग के झुकाव को लेकर चंद्रशेखर रावण अपने तर्क देते हैं. हाल ही में मीडिया के कुछ धड़ों से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि धर्म की आंधी के साथ जब बहुसंख्यक समाज बीजेपी की ओर बहा तो उसी धारा में दलित भी बह गया. पर बार-बार ऐसा नहीं होगा. पहले जो वोट बीजेपी को गया उसमें गैर-जाटव ज्यादा थे, पर जाटव वोट बैंक बीजेपी का नहीं हमारा साथ देगा.
चंद्रशेखर रावण का इस चुनाव को लेकर भुलावा कि दलित वोट बैंक उनके पास है, छद्म ही प्रतीत होता है. जब 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी की सबसे बड़े दलित जनाधार वाली पार्टियां एसपी-बीएसपी ने आपसी गठबंधन किया, जिसे कराने में बकौल चंद्रशेखर रावण उनकी भी भूमिका थी, लेकिन तब भी बीजेपी को हराने में सभी को मिलकर भी कामयाबी नहीं मिली तो इस बार योगी-मोदी के माहौल में क्या उम्मीद की जा सकती है.