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चुनाव में क्या जनता की उम्मीदों की कसौटी पर खरे उतर पाएंगे अखिलेश।

लखनऊ : मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में चुनावी समर में उतरने के बावजूद लोग यह मानकर चल रहे थे कि भविष्य की सपा अखिलेश के नेतृत्व वाली होगी। लिहाजा जनता ने सपा को 224 सीटें देकर प्रदेश की बागडोर सौंपी सत्ता में रही बसपा 206 से घटकर 80 पर आ गई। भाजपा 51 सीटों से लुढ़की और 47 पर आकर टिकी। अलबत्ता कांग्रेस को 2007 की 22 सीटों की तुलना में कुछ फायदा हुआ और उसने 28 सीटें जीतीं। रालोद को 9 सीटें ही मिलीं। समाजवादी पार्टी ने चुनाव तो मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में लड़ा था, लेकिन लंबे विचार-विमर्श और पार्टी के प्रमुख नेताओं के असहज होने की अनदेखी करते हुए मुलायम ने आखिरकार पुत्र अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी थी।

अखिलेश पर भरोसे ने दिलाई सपा को जीत
लोगों को भरोसा था कि युवा और विदेश से पढ़कर आए, अंग्रेजी बोलने व समझने में माहिर अखिलेश के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी बदलेगी। वह जातिवाद और तुष्टीकरण से मुक्त होगी। सत्तारूढ़ दल के नेताओं को न तो सत्ता की हनक दिखाने की छूट होगी और न मनमानी करने की। फैसले और सरकार की सुविधाएं जाति व धर्म देखकर नहीं मिलेंगी। इस संदेश को ताकत मिल रही थी सपा के तत्कालीन वरिष्ठ नेता मो. आजम खां की ‘हां’ के बावजूद आपराधिक छवि वाले डीपी यादव को सपा में शामिल करने से अखिलेश के मना करने के फैसले से। मुख्तार अंसारी की पार्टी के साथ गठबंधन करने का विरोध करने से। साथ ही अतीक जैसे नेताओं के सपा के साथ लाने के प्रस्ताव पर तेवर दिखाने से। अतीक अहमद को मंच से धक्का देकर भी अखिलेश ने आपराधिक छवि वाले नेताओं पर सख्त तेवरों का संदेश दिया। यही वे कारण थे जिसने अखिलेश को यादव, मुस्लिम के साथ बड़ी संख्या में गैर यादव पिछड़ों और ब्राह्मणों का वोट दिलाया। एक तरह से अखिलेश सरकार ‘सबका साथ’ की सोशल इंजीनियरिंग पर जीती।

शुुरुआती चुनौतियों से तो पार पा लिया
हालांकि, अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने का औपचारिक फैसला होने से पहले जो कुछ हुआ उसने मुलायम परिवार उनके साथियों के इस फैसले के साथ पूरे मन से होने पर आशंकाएं सार्वजनिक कर दी थीं। संकेत यह भी मिल गया था कि कभी परिवार के लिए कड़क प्रशासक सर्वेसर्वा माने जाने वाले मुलायम का दबदबा कमजोर हुआ है। उस समय की खबरों और चर्चाओं पर ध्यान दौड़ाएं तो याद आ जाएगा कि शुरू में मुलायम सिंह यादव चौथी बार मुख्यमंत्री बनकर अपने घोर सियासी दुश्मन मायावती की बराबरी का रिकॉर्ड बनाना चाहते थे। पर, प्रो. रामगोपाल अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने के पक्षधर थे। वरिष्ठ नेता मो. आजम खां और दूसरे चाचा शिवपाल सिंह यादव पहले मुलायम के पक्ष में थे। बातचीत के बाद वे माने थे। बहरहाल, मुलायम का फैसला पुत्र अखिलेश के पक्ष में आया। इसके कारण नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर कुछ दिन असमंजस भी बना रहा था।
कुशवाहा की छाया ने भाजपा को बाहर बैठाया भाजपा ने सारे समीकरण तो साधे पर बाबूसिंह कुशवाहा की छाया पड़ते ही पूरे प्रदेश में ऐसा माहौल बना कि लाभ मिलना तो दूर उल्टे अपनी साख बचाना मुश्किल हो गया। घोटालों में घिरे बाबूसिंह कुशवाहा के खिलाफ कुछ दिनों पहले तक भाजपा ने अभियान भी चलाया था। नतीजा प्रदेश के चुनावी रणक्षेत्र में लड़ाई सिर्फ बसपा और सपा के बीच सिमटकर रह गई। भाजपा क्रिकेट टीम के अतिरिक्त खिलाड़ी की तरह नजर आई।

शुरुआत से ही छवि को लेकर रहे सतर्क, बलराम को किया बर्खास्त
अखिलेश शुरू से ही छवि को लेकर सतर्क थे। इसका असर बाद में भी दिखा। जीत के जश्न में सपाइयों के उत्पात का मामला रहा हो या फिर पूर्व मंत्री शाकिर अली के देवरिया रेलवे प्लेटफॉर्म पर घोड़ा दौड़ाने का, अखिलेश ने सख्त तेवर दिखाए। शपथग्रहण के दौरान सपाइयों ने जोश में जिस तरह हंगामा किया उसपर भी अखिलेश ने जैसी कठोरता दिखाई। सरकार बनने के बाद मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश के मंत्री बलराम यादव को मुख्तार अंसारी से मिलने के लिए भेजा, लेकिन अखिलेश छवि को लेकर इतने सतर्क थे कि उन्होंने बलराम को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया।

लैपटॉप-टैबलेट और बेरोजगारी भत्ता
मुख्यमंत्री बनने के बाद युवाओं के मुद्दों पर अखिलेश ने फोकस किया। पहली ही कैबिनेट में बेरोजगारों को भत्ता देने, हाईस्कूल पास छात्र-छात्राओं को टैबलेट एवं इंटर उत्तीर्ण छात्र व छात्राओं को लैपटॉप देने के फैसले पर मुहर लगा दी। इससे प्रदेश में बदलाव की बयार बही।

एक्सप्रेसवे और लखनऊ मेट्रो का निर्माण
बतौर मुख्यमंत्री ‘यमुना एक्सप्रेसवे’ का लोकार्पण कर और आगरा एक्सप्रेसवे का निर्माण कर अखिलेश ने सरकार की छवि विकासवादी बनाई। लखनऊ में मेट्रो का काम शुरू कराकर और सरकार रहते-रहते आलमबाग से चारबाग तक का ट्रैक शुरू कराकर भी उन्होंने जनता को वादों पर अमल का भरोसा दिलाया। लखनऊ सहित कई शहरों में ओवरब्रिज के निर्माण, स्वास्थ्य सुविधाओं पर किए गए कामों, दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों तक बसों के संचालन और सस्ते किराए पर आने-जाने की सुविधा मुहैया कराकर भी उन्होंने सरोकार साधे। गाजियाबाद से दिल्ली तक एलिवेटेड रोड और बच्चों के लिए सुपर स्पेशिएलिटी अस्पताल बनवाया।

मायावती के बिजली समझौतों को दी गति
मायावती के शासनकाल में अप्रैल से दिसंबर 2010 के बीच निजी कंपनियों के साथ 10,790 मेगावाट क्षमता की 10 परियोजनाओं के लिए एमओयू किया गया था। इन परियोजनाओं से 10,309 मेगावाट बिजली खरीदने का करार हुआ। कई परियोजनाओं पर काम शुरू नहीं हो पाया था। इसलिए 2012 में अखिलेश यादव की सरकार बनने के बाद जिन कंपनियों के साथ एमओयू हुआ था, उनके एमओयू की अवधि डेढ़ वर्ष बढ़ा दी गई थी। अखिलेश सरकार ने मायावती सरकार में शुरू की गई बिजली परियोजनाओं को आगे बढ़ाया।

तुष्टीकरण के आरोपों ने कराई किरकिरी, आतंक के आरोपियों के मुकदमे वापसी 7 मार्च, 2006 की शाम को वाराणसी के संकटमोचन मंदिर और कैंट रेलवे स्टेशन पर एक के बाद एक हुए धमाकों में 18 लोगों की मौत हो गई थी। इसी तरह, नवंबर 2007 में लखनऊ, वाराणसी और अयोध्या कचहरी में विस्फोट की घटना हुई, जिसमें कई लोगों पर मामले दर्ज हुए थे। अखिलेश ने इन मामलों के आरोपियों से मुकदमे वापस लेने का फैसला किया। इसके लिए उच्च न्यायालय ने सरकार से नाराजगी जताई। साथ ही आगाह किया था कि राज्य सरकार को यह अधिकार ही नहीं है। बहरहाल अखिलेश के फैसले ने विपक्ष को उन्हें कठघरे में खड़े करने का मौका तो दे ही दिया।

कब्रिस्तान की चहारदीवारी
अखिलेश ने कब्रिस्तानों की सुरक्षा के लिए सरकार के पैसे से चहारदीवारी बनवाने और कक्षा 10 पास करने वाली मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा और विवाह के लिए 30 हजार रुपये का अनुदान देने का फैसला किया, उससे उन पर भी तुष्टीकरण के आरोप लगे। मुस्लिमों को लुभाने के लिए सरकार ने योजनाओं में 18 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया। इस फैसले ने सपा सरकार के मुसलमानों को लुभाने की नीति का जो संदेश दिया उससे भी नुकसान हुआ।

मुजफ्फरनगर दंगे और जवाहर बाग कांड से बना नकारात्मक माहौल
राजनीतिक विश्लेषक प्रो. एपी तिवारी बताते हैं कि मुजफ्फरनगर दंगा और मथुरा के जवाहरबाग कांड ने सरकार को लेकर नकारात्मक माहौल बनाया। जवाहर बाग में अवैध कब्जा हटाने गई पुलिस टीम पर हमले में तत्कालीन एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी और एसआई संतोष यादव सहित 31 लोगों की जान चली गई। इस घटना में एक ताकतवर मंत्री के घिरने से अखिलेश सरकार के दामन पर भी दाग लगा।

पत्रकार व पुलिस अफसर की हत्या के दाग
शाहजहांपुर में एक पत्रकार को जलाकर मार देने के आरोप में अखिलेश सरकार के मंत्री राममूर्ति वर्मा कठघरे में खड़े हुए। वहीं, कुंडा में तैनात सीओ जियाउल हक की हत्या पर उनकी पत्नी परवीन आजाद ने अखिलेश सरकार में मंत्री रहे रघुराज प्रताप सिंह राजा भैया पर आरोप लगाए। सरकार ने परवीन को सरकारी नौकरी देकर और राजा भैया ने मंत्रिमंडल छोड़कर मामला संभालने की कोशिश की, पर इन घटनाओं ने भी अखिलेश की साख को नुकसान पहुंचाया।

गायत्री ने लगाया सरकार की साख पर बट्टा
सपा सरकार के खनन मंत्री गायत्री प्रजापति की खनन माफिया से साठगांठ की खबरें मुसीबत बनती गईं। हालांकि 2016 में अखिलेश ने गायत्री प्रसाद प्रजापति को बर्खास्त कर मामला संभालने की कोशिश की, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। ऊपर से गायत्री पर बलात्कार के आरोपों ने भी संकट बढ़ा दिया था। गौतमबुद्धनगर में खनन माफिया पर कार्रवाई के चलते आईएएस अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल का निलंबन सरकार के गले की फांस बन गया।

यूपीपीएससी की कार्यशैली भी मुद्दा बनी
उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग के चेयरमैन रहे अनिल कुमार यादव की कार्यशैली भी बड़ा मुद्दा बनी। उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप कर उन्हें हटाने का निर्देश देना पड़ा। भर्तियों में त्रिस्तरीय आरक्षण व्यवस्था लागू करने के विरोध में आंदोलन हुए। पीसीएस-2015 प्रारंभिक परीक्षा का पेपर आउट हुआ। कई बार आयोग को फैसला बदलना पड़ा। भर्तियों में कॉपियों में हेराफेरी और जातिवादी नजरिये से काम करने के आरोप लगे।

यादव सिंह से लेकर पोंटी चड्ढा तक से नुकसान
वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र भट्ट बताते हैं, नोएडा के तत्कालीन चीफ इंजीनियर यादव सिंह को जिस तरह सरकार बचाने पर उतरी उससे भी उसकी किरकिरी हुई। बसपा सरकार में शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा के दबाव में बनी शराब नीति लागू रखी गई, उससे भी सरकार की छवि को नुकसान पहुंचा।

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